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बहुत याद आते हो आनंद

बहुत याद आते हो आनंद

बहुत याद आते हो आनंद सहगल (राजेश खन्ना). उसे मालूम है उसे लिम्फोसार्कोमा नामक जानलेवा कैंसर है और उसकी बाकी ज़िंदगी सिर्फ छह महीने है. त्रासदी ये है कि किसी से कह भी नहीं सकता कि मेरी उम्र भी तुम्हें लग जाए. वो उस ज़िंदगी के बाकी लाखों पल ख़ुशी से जीना चाहता है. वो हर में ढेर ज़िंदगी तलाशता है. वो कहता भी है, ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए लम्बी नहीं. ख़ुशी की तलाश में उसे ज़िंदगी से भरपूर कई किरदार मिलते हैं जो उससे जुड़ते चले जाते हैं. जैसे डॉ भास्कर बैनर्जी (अमिताभ बच्चन), डॉ प्रकाश कुलकर्णी (रमेश देव) और उनकी पत्नी सीमा कुलकर्णी, मुरारीलाल उर्फ़ मूसा भाई (जॉनी वॉकर), मैट्रन डिसूज़ा (ललिता पवार), पहलवाल पापा जी (दारा सिंह) आदि. और एक दिन आनंद खामोश हो जाता है, वो एक कठपुतली है जिसकी डोर ऊपर वाले के हाथ में बंधी है.

ऋषिकेश मुख़र्जी ने कैंसर पीड़ित ‘आनंद’ (1971) खुद ही लिखी थी. ये ‘अनाड़ी’ (1959) की शूटिंग के दिनों की बात है जब डायरेक्टर ऋषि दा को राजकपूर ‘बाबू मोशाय’ कह कर बुलाते थे. ऋषि दा को बाबू मोशाय इतना भाया कि कालांतर में आनंद के मुंह से अमिताभ बच्चन (डॉ भास्कर बनर्जी) के लिए कहलवा दिया. वास्तव में ऋषि राजकपूर के मुंह से ‘बाबू मोशाय’ कहलवाना चाहते थे. हुआ यूं कि एक बार राजकपूर बहुत बीमार पड़े. ऋषि दा उन्हें देखने गए. उन्हें लगा कि राज बचेंगे नहीं. राज आमतौर पर बड़े हंसोड़ किस्म के व्यक्ति थे. वो जहाँ भी होते थे हंसी और ठहाकों के रूप में ज़िंदगी वहां भरपूर रहती थी. उस दिन जब ऋषि दा उनसे मिलने गए तो वो बिस्तर पर पड़े हुए भी मुस्कुरा रहे थे. उन्होंने शायद ऋषि दा के दिल की बात पढ़ ली – बाबू मोशाय, अभी जाने का वक़्त नहीं आया. ऋषि दा बहुत मुतासिर हुए. उन्होंने कहानी लिखी – आनंद.
इस बीच राजकपूर ठीक हो गए. ऋषि दा आनंद के लिए राज कपूर को और डॉ भास्कर के किरदार में शशिकपूर को देख रहे थे. मगर बात बनी नहीं. तब आनंद के लिए उन्होंने किशोर कुमार और डॉ भास्कर में महमूद को चुना. महमूद तैयार भी हो गए. किशोर को कहानी सुनाने ऋषि दा तय वक़्त पर उनके घर पहुंचे. मगर चौकीदार ने ऋषि दा को भीतर नहीं जाने दिया. दरअसल, उन दिनों किशोर का एक बंगाली प्रोड्यूसर से पैसे के लेन-देन का डिस्प्यूट चल रहा था. किशोर ने चौकीदार से कह दिया अगर कोई बंगाली आये तो उसे भीतर मत घुसने देना. और चौकीदार ने ऋषि दा को वही बंगाली समझ लिया. ऋषि दा इस व्यवहार से इतना कुपित हुए कि उन्होंने किशोर को लेने का आईडिया ही ड्राप कर दिया. यहाँ ग़ौरतलब है कि इसी के चलते ऋषि दा ने फिल्म में मुकेश से गाने गवाए. राजेश ने एक इंटरव्यू में बताया था उनका सबसे पंसंदीदा गाना मुकेश का गाया गाना है – कहीं दूर जब दिन ढल जाए… अब ये बात दूसरी है कि कालांतर में परदे पर किशोर ही राजेश की आवाज़ बने.
बहरहाल, इधर महमूद ने भी डेट्स खाली न होने की वज़ह से मना कर दिया. और ये सब इसलिए हुआ कि डेस्टिनी में लिखा था कि राजेश खन्ना आनंद के लिए बने हैं और अमिताभ डॉ भास्कर के लिए. ऋषि दा आनंद को महीने भर में शूट करना चाहते थे और ये वो दौर था जब राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन के पास खाली डेट्स की भरमार थी. कहते हैं जिस दिन ‘आनंद’ रिलीज़ होनी थी उस दिन अमिताभ कार में फ्यूल के एक पेट्रोल पंप पर रुके. लेकिन किसी ने उन्हें पहचाना नहीं. और शाम को जब वो लौट रहे थे तो फिर उसी पेट्रोल पंप पर उन्हें फ्यूल के लिए रुकना पड़ा और उन्हें देखने के लिए वहां भीड़ लग गयी.
एक और दिलचस्प बात. ऋषि दा चाहते थे कि लता मंगेशकर संगीत दें क्योंकि वो एक मराठी फिल्म के लिए ऐसा कर चूँकि थीं. लेकिन लता जी ने मना कर दिया, मैं गा सकती हूँ. आप संगीत के लिए सलिल दा से बात कर लें.
और बाकी तो हिस्ट्री है. ‘आनंद’ देखने के बाद कई कैंसर पीड़ितों की ज़िंदगी बड़ी हो गयी. और इन पंक्तियों के लेखक को भी ऐसा लगता है कि उसके कैंसर पीड़ित पिता की ज़िंदगी भी कुछ बढ़ गयी थी, क्योंकि वो अक्सर कहते थे, मैं बाकी ज़िंदगी को अच्छी तरह एन्जॉय करना चाहता हूँ.

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